गुरुवार, 8 नवंबर 2007

मैं दिवाली को मनाऊँ तो मनाऊँ कैसे.


उपरोक्त तस्वीर पाकिस्तान के ताज़ा हालात की है जो बी.बी.सी.पर दी गयी है ये ग़ज़ल उसी से वाबस्ता है.

ग़ज़ल

मैं दिवाली को मनाऊँ तो मनाऊँ कैसे.
मेरा पिटता है पड़ोसी मैं बचाऊँ कैसे .

चीखें दीवार के इस पार सुनाई देती,
कैसी दीवार ये , दीवार गिराऊँ कैसे.

आग गंगा में लगे, या ये लगे झेलम में.
अपने अश्कों से मैं ,ये आग बुझाऊँ कैसे .

सोना चाँदी भी खरीदो, ज़रा धनतेरस पर,
मुझको रोटी की फ़िक्र , उसको बताऊँ कैसे.

मेरी ख़्वाहिश तो है तोहफ़ा दूँ दिवाली पे उसे.
मुझको किश्तें भी चुकानी हैं चुकाऊँ कैसे.

बच्चे देते हैं तसल्ली की कोई बात नहीं ,
कैसे संजीदा है हालात दिखाऊँ कैसे .

दोस्तो तुम भी तो कुछ रोज सब्र कर लेना,
जेब खाली है अभी तुमको पिलाऊँ कैसे .

वो गरीबी में हमें भूल गया देखो तो.
अपने दिल से मैं मगर उसको भुलाऊँ कैसे.

डॉ. सुभाष भदौरिया,अहमदाबाद ता.8-11-07 समय-10.45AM

3 टिप्‍पणियां:

  1. ताज़े हालात से रुबरू कराती आपकी ये गज़ल दिल को छू गई ....

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  2. सोना चाँदी भी खरीदो, ज़रा धनतेरस पर,
    मुझको रोटी की फ़िक्र , उसको बताऊँ कैसे.

    मेरी ख़्वाहिश तो है तोहफ़ा दूँ दिवाली पे उसे.
    मुझको किश्तें भी चुकानी हैं चुकाऊँ कैसे.

    बच्चे देते हैं तसल्ली की कोई बात नहीं ,
    कैसे संजीदा है हालात दिखाऊँ कैसे .

    बहुत खूब सुभाष जी. हालत की सच्चाई कों बहुत सही बयां किया है आप ने.
    बधाई
    निमंत्रण देता हूँ आपकों मैं अपने ब्लॉग पे आने का.
    नीरज

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  3. राजीवजी,नीरजजी आपकी हौसला अफ़ज़ाई के लिए मश्कूर हूँ जनाब.यूँ ही मुहब्बत बनाये रखिए.

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