बुधवार, 9 जनवरी 2008

दाल जूतों में अब बँटेगी फिर,

ग़ज़ल
ब्लॉग पर कुछ सयाने आये हैं.
पाठ सब को पढ़ाने आये हैं .

एक मिसरा भी कह नहीं सकते,
रोब अपना जमाने आये हैं.

दाल जूतों में अब बँटेगी फिर,
फिर से मौसम सुहाने आये हैं.

आप लिखती हैं क्या ग़ज़ब कविता !
कह के अम्माँ फँसाने आये हैं .

टाँग तुड़वाके बाप की तेरे,
तुझ से मिलने दिवाने आये हैं.

हमसे पूछो की क्यों यहाँ आये,
ऐसी तैसी कराने आये हैं.
ता.09-01-08 समय-7-40












2 टिप्‍पणियां:

  1. हमसे पूछो की क्यों यहाँ आये,
    ऐसी तैसी कराने आये हैं.
    सुभाष जी.... ये है ग़लत जवाब.
    ऐसे कहिये की ऐसी तैसी करने आए हैं....आप कब से लपेट लपेट के मारने में विश्वास करने लगे हैं? अजी आप से तो लोग डरते ही इसलिए हैं की भाई मुहफट है. भाई आप सी ग़ज़ल लिखना किसी के बस की बात नहीं....
    नीरज

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  2. मस्त सर जी. सही फरमाया नीरज जी ने. आप से सीखने को बहुत कुछ है. ये कमाल सब से नहीं होता. यूँ ही मस्त करते रहें ...

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