बुधवार, 11 जून 2008

सिपैया गोली मार गये हाय मोरी अम्मा.









सिपैया गोली मार गये हाय मोरी अम्मा.
हम बापों से ही क्या कम परेशान थे कि राजस्थान में अम्मा ने भुनवा डाला. मारो मारो जितना मारना है मारो पर महारानीजी मरने का रेट तो डिक्लेर करो. खाने,पीने,सोने-सुलाने के दाम बड़े फिर मारने की भी तो कोई कीमत आँको पर नहीं जब दिल्ली के स्टोक चेन्ज से भाव खुलेंगे फिर राजस्थान का रेट पता चलेगा. हाल में हैदराबाद में भी तो ऐसा हुआ था. मस्जिद में बम्ब बिस्फोट में तो मरे ही सिपैयों ने भी जो ताक ताक कर मारे उनका भाव दिल्ली से खुला फिर राज्य ने कीमत घोषित की. पर लगता है राजस्थान का घाटे का बजट है सो आशा कुछ कम ही नज़र आती है.
ये सिपैये और इनके आला अफ्सर चोर लुटेरों के पाँव चाटें, तस्कर बदमासों को बहिना बेटी ब्याहें, ककुर्मी नेताओं की पिछाड़ी अपनी जीभ से साफ करें. आतंकवादियों को देखकर पाखाने में छुप जायें पर लाचार निहत्थे किसानो, मजदूरों,मुसल्मानों,हिन्दुओं को गोली से भूजने में इन्हें महारथ हांसिल हैं. माना सब ऐसे नहीं है पर अधिकतर ऐसे हैं उनका क्या करें. ये भूल जाते हैं कि जिन पर ये गोली चलाते हैं वे कोई दूसरे नहीं इन्हीं के मुल्क के लाचार बेबस जुल्म के शिकार लोग हैं जो अपने हक के लिए बहरे कानों को सुनाने की कोशिश में जान से हाथ धो बैठते हैं.
सामने गुर्जर किसानों की लाशें पड़ी हैं गुजरियां चीख मार मार कर बिलख बिलख कर रो रहीं है उनके रूदन से आसपास के इलाके हिल रहे हैं पर दिल्ली की अभी नींद नहीं टूटी.उनका कल्पान्त मुझे यहाँ अहमदाबाद तक सुनाई दे रहा है.पड़ोसी जो ठहरा.
गैया रोये, बछिया. रोवें बैला भइया.
पानी के बदले में गोली कोइ न आय बचैया.
गद्दी पर बैठी अम्मा ने मुश्किल कर दिया जीना.
हत्यारिन हाय राम बड़ा दुख दीना.
लाशें पड़ी गुर्जर की देखो रोवें सारी गुजरियां.
कहाँ छुपे बैठे हो जल्दी आओ तुम्हीं संवरिया.
बैरी नागिन नें पिया डस लीना
पापिन अम्मा ने हाय राम बड़ा दुख दीना
और फिर क्या था संवरिया ही नहीं उनकी पूरी सेना सड़कों पर उतर आयी. समय ठहर सा गया है, इतिहास बताता है गुर्जर जाति अपने शौर्य और शक्ति की मिशाल रही है
ये अपनी पर आ जाये तो जान दे भी दे और ले भी ले. उनका खून पानी नहीं कि बहा दो और पत्ता भी न डोले. आज दिशायें डोल रही हैं. रास्ते ठप्प सब कुछ थम सा गया है. यदि सच्चे दिल से उनसे माफी माँगी जाय उनकी बात सुनी जाय तो वे शान्त हो सकते हैं. पर इतनी फुरसत किसे है सब तमाशा देख रहे हैं.
दिल्ली में बैठी बड़ी अम्मा इस खेल पर नज़र रखे हुए हैं. उनके कमान्डर राजस्थान पहुँच चुके हैं वे इस आग में और पिटरोल डालेंगे. मौका अच्छा है सबको अपने हिसाब .चुकता करने हैं चाहे घर के हों या बाहर के राजस्थान की अम्मा को सोचना चाहिए.
लोग सोचते थे कि बापों का राज तो देखा उसमें मरे कटे जले.अब अम्माओं पर भरोसा किया कि वे ममता से भरी होंगी वे दुख दर्द समझेंगी. पर सारा गणित ग़लत निकला. अभी तो वे दो चार ही हैं जब उनका कोटा पूरा हो जायेगा तब तो वे गोली नहीं बम्ब बरसायेंगी. दुख की बात तो ये है कि हम इन अम्मा बापों को पहिचानते हुए भी इनके हत्थे बने हुए हैं और हम आपस में एक दूसरे की जड़े काटने पर तुले हुए हैं. चाहे वे गुर्जर हों मीना हों हिन्दू हों मुसल्मान हों कोई फर्क नहीं पड़ता.
इन अम्मा और बापों के खेल में सहना आम आदमी को ही है. कभी धर्म के नाम पर ज़िन्दा जलाने का खेल, कभी जाति के नाम पर गोलियों से भूनने का खेल.राजनीति के इस शतरंज के खेल में मरना हम गधे घोड़ो को ही है. इस खेल में चाहे राजा हो या रानी उन्हें सिर्फ मात ही मिलती है.
डॉ.सुभाष भदौरिया. अहमदाबाद.




































कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें