बुधवार, 13 अगस्त 2008

हैं बाज़ बहुत शातिर तुम कैसे निभाओगे.


येग़ज़ल अरे,तुमक्याखाकर स्त्री-विमर्श करोगे! केपसमंज़रकीहै.देखेंइसपते परhttp://anuja916.blogspot.com/2008/08/blog-post_12.html मुझे नेट के लोगों, लुगाइयों पर पर जरा भी एतबार नहीं है उनका दोगला पन मुझसे छिपा नहीं है वे एक तरफ तल्ख़ भाषा और आज़ाद ख़यालों को नकारते हैं तो दूसरी नवाज़िश भी करते हैं या बगलों की तरह ध्यानमु्द्रा में चुप रहते हैं. अनुजाजी की आवाज़ भीड़ से हटकर है और उसमें सच्चाई की खुश्बू भी मैं उनकी ताईद करता हूँ और आगाह भी.
ग़ज़ल
नादान हवाओं की , बातों में जो आओगे.
ये हमको यकीं है अब, घर अपना जलाओगे.
ख़तरें हैं बहुत ख़तरे, आकाश में उड़ने के,
हैं बाज़ बहुत शातिर, तुम कैसे निभाओगे.
जिस शै को कुचलने, की करते हो बहुत बातें,
उस शय का मगर जादू किस तरह भुलाओगे.
आईना तुम्हें अक्सर, फिर याद दिलायेगा,
नज़रों में अगर खुद की, तुम खुदको गिराओगे.
इल्ज़ाम हमारे सर, तुमने जो लगाये हैं,
तुम अपने गिरेबां को, क्या झांक न पाओगे ?
पत्थर तो उछाले हो, शीशे के बदनवालो,
सोचो तो ज़रा खुद को, किस तरह बचाओगे.
हमने तुम्हें चाहा है, हमने ही तुम्हें पूजा,
हम ख़ाना-ख़राबों को मिट्टी में मिलाओगे.
लड़ने को बहुत है कुछ, करने को बहुत है कुछ,
इन रार की बातों से, तुम रार बढ़ाओगे.
डॉ.सुभाष भदौरिया,.ता.13-08-08 समय- 08.36AM

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