गुरुवार, 4 सितंबर 2008

दावतें दे रहे बेहयाई से ख़ुद.

ये ग़जल नारी,कटारी शिकारी फिर भी विचारियों के नाम है जो एक तरफ हम पुरुषों की छाती पर मूंग दलती हैं ये तसवीर उसी से वाबस्ता है. दूसरी तरफ उनका रोना है हाय हम पूरी दुनियां के निशाने पर हैं. सब पुरुषों का लक्ष-भेद एक ही है और वो भी ढंग से नहीं होता.शक्तिवर्धकों का सहारा लेते हैं.अरे भाई विज्ञान के आविष्कार तो हुए हैं कौन मना करता है तथास्तु,अतिशीघ्रम,विजयीभवा.
हमारा संहार करने के लिए युद्ध स्थली हमारा ब्लॉग रहेगा.लोग लुगाई सादर आमंत्रित हैं.
ग़ज़ल
हम ग़ज़ल कह रहे हैं तुम्हारे लिए.
तीर तुम भी चलाओ हमारे लिए.
दावतें दे रहे बेहयाई से ख़ुद,
बाद में रोयेंगे फिर सहारे लिए.
बात फिर क्या कोई हम खरी कह गये,
ढूंढ़ते हैं हमें सब दुधारे लिए.
हों मुबारक तुम्हें हुस्न की वादियां,
क्या करेंगे इन्हें ग़म के मारे लिए.
झोपड़ी मेरी अब ख़ैर तेरी नहीं,
हाथ मे फिर रहे सब शरारे लिए.
एक हम थे कि तूफान से भिड़ गये,
लोग बैठे रहे सब किनारे लिए.

डॉ.सुभाष भदौरिया, ता.04-09-08 समय-7-05AM















3 टिप्‍पणियां:

  1. झोपड़ी मेरी अब ख़ैर तेरी नहीं,
    हाथ मे फिर रहे सब शरारे लिए.
    एक हम थे कि तूफान से भिड़ गये,
    लोग बैठे रहे सब किनारे लिए.
    बेहतरीन....सुभाष जी आप का अंदाजे बयां तो लाजवाब है...हमेशा से ही.
    नीरज

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  2. झोपड़ी मेरी अब ख़ैर तेरी नहीं,
    हाथ मे फिर रहे सब शरारे लिए.
    झोपड़ी और शरारे जैसे अल्फाज़ के इस्तेमाल से तो आप ने इस उम्दा शेर को गोया एक मोहाविरा (proverb) बना कर रख दिया. बहुत ख़ूब.

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