रविवार, 19 अक्तूबर 2008

उनकी ज़ुल्फ़ों को छेड़े ज़माने हुए.

ग़ज़ल
मेरे हाथों से अब तक महक ना गई,
उनकी ज़ुल्फ़ों को छेडे़ ज़माने हुए.
मेरी सांसों का जादू है अब तक जवाँ,
हमने माना की रिश्ते पुराने हुए.
ये कसक,ये तड़प,ये जलन,ये धुआँ,
उस मुहब्बत की ही दी सौगा़त है,
साज़ो-आवाज़ ये शेरो-शायरी
उनसे मिलने के कितने बहाने हुए .
वो मिले भी तो कब,अब तुम्हीं देख लो,
मेंहदी हाथों की बालों में जब आगयी,
मेरी रातों को अब फिर से पर लग गये,
मेरे तपते हुए दिन सुहाने हुए.
हाथ में हाथ फिर ले लिया आपने,
पेड़ सूखा हरा कर दिया आपने,
ज़िन्दगी की सुलगती हुई धूप में,
तेरी चाहत के फिर शामियाने हुए.
बात ही बात में बात इतनी बडी़
देखते देखते कितने घर जल गये,
चंद शोलों की थी वो शरारत मगर
लोग जज़्बात में आ दिवाने हुए.
घात में कुछ दरिन्दे हैं बैठे हुए,
लौटकर घर पे आना भी मुश्किल हुआ,
तेज तर्रार बचकर निकल भी गये
भोले भाले थे वे ही निशाने हुए.
रूखी सूखी में हम ने गुज़ारा किया
उनकी चौखट पे सर न झुकाया कभी,
अब तो सौदागरों को ये अफ़सोस है
उनके बेकार सारे ख़ज़ाने हुए.
डॉ. सुभाष भदौरिया ता.19-10-08समय-12-15PM

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूब जनाब...बहुत ही खूब...वाह...वा
    नीरज

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  3. "मेरे हाथों से अब तक महक ना गई,
    उनकी ज़ुल्फ़ों को छेडे़ ज़माने हुए."

    पुरानी यादों के तार छेड़ दिए आपने ! बहुत खूब सुभाष भाई !

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  4. वो मिले भी तो कब,अब तुम्हीं देख लो,
    मेंहदी हाथों की बालों में जब आगयी,

    हा हा हा ....
    तुम से बिछड़े तो ज़माने से बिछड़े

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