रविवार, 26 अक्तूबर 2008

देखा है आँख ने ये तमाशा भी दोस्तों.

ग़ज़लजो कह रहे थे देश से वे हैं महाऱथी.
होगी लड़ाई दुश्मनों से आर पार की.

देखा है आँख ने ये तमाशा भी दोस्तो,
चूहों ने घुस के संसद में रेड मार दी.

दामाद की तरह से बिठाकर के प्लेन में,
सरहद के पार छोड़ के आये थे जो कभी.

गोला जो पाक का कभी कश्मीर पे गिरा,
दिल्ली में उनकी देखिये पतलून भीग ली.

आसाम, झारखंड, महाराष्ट्र जल रहा,
अपने ही घर में हो गये हम,अब तो बाहरी.

फौजों को जल्द भेजिये लोगों के वास्ते,
गुंडो की वो ही अब तो उतारेंगे आरती.

गांधी, सुभाष भगत की वो बात हैं कहाँ,
इन बुज़दिलों ने मुल्क की मिट्टी खराब की.

डॉ.सुभाष भदौरिया,ता.27-10-08 समय-05-05PM

6 टिप्‍पणियां:

  1. दीपावली पर हार्दिक शुभकामनाएँ। आप के विचार अच्छे हैं। पर भाषा असहज लगी।

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  2. दिनेशजी पिछली पोस्टो में वर्णित भाषा पर आप कुछ न बोलें हो सके तो उन पर बात कीजिये.
    ग़ज़ल हमारे लिए लिए दर्द का इज़हार ही नहीं हथियार भी है दानिशमंद समझें तो बेहतर है.
    जब चारों तरफ सब कुछ असहज हो तो रचनाकार से सहजता बनाये रखे ये कैसे हो सकता है.इन ढकोसोलों से हम कोसों दूर हैं. हमने कई बार कहा है अल्फ़ाज़ की हमारे पास कमी नहीं.जिन किरदार की हम बात करते हैं उनका दोगला पन अब छुपा नहीं.
    पिछली कई पोस्टों में हमने मधुरम मधुरम भाषा का प्रयोग किया है आप देखें.
    मीठे के साथ तीखे का भी आनंद लेना सीखिये साहब और खास उम्र में तो मीठे से परहेज करना चाहिए आप उम्र रशीदा है वकील साहब कहीं अधिक मीठे की लालसा आपको डायाबिटीज़ न कर दे.
    दीपावली की आपको भी शुभकामनायें.इक शेर याद आ गया-
    वो गाली भी देता है तो लगता है दुआ देता है.
    थोड़ा कबीर को पढ़िये श्रीमान.आमीन.

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  4. सतीशजी जिस शब्द पर आप ने बच्चों को न पढाने का वास्ता दिया उसे तब्दील कर दिया है अब आप बच्चों की अम्मा चाची सबको पढ़ा दीजिए.
    वैसे आपको सच कहें आप जिस शब्द को लेकर अभिधागत अर्थ पर ज़ोर दे रहे थे उसकी व्यंजना खास कर मुहावरे के रूप में आम लोग इस्तेमाल करते हैं.अभिजात वर्ग की तकलीफ मैं समझ सकता हूँ मेरी ग़जलों में आम वर्ग की पीड़ा है तो भाषा भी वही होगी.
    ख़ैर जिस मुहब्बत से आप ने ग़ुज़ारिश की मान गये सरकार. अब इतने तो गुस्ताख़ नहीं है जितना लोग समझते हैं.

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