सोमवार, 27 अक्तूबर 2008

मैं दिवाली को मनाऊँ तो मनाऊँ कैसे.

ग़ज़ल
मैं दिवाली को मनाऊँ तो मनाऊँ कैसे.
मुझसे बिछुड़े हैं कई लोग भुलाऊँ कैसे.

नफ़रतें खा गयी मासूम कई दीपों को
टूटे दिल से मैं भला दीप जलाऊँ कैसे.

आग गंगा में लगे, या वो लगे झेलम में.
अपने अश्कों से मैं ,ये आग बुझाऊँ कैसे .

सोना चाँदी भी खरीदो, ज़रा धनतेरस पर,
मुझको रोटी की फ़िक्र , उसको बताऊँ कैसे.

मेरी ख़्वाहिश तो है तोहफ़ा दूँ दिवाली पे उसे.
मुझको किश्तें भी चुकानी हैं चुकाऊँ कैसे.

बच्चे देते हैं तसल्ली की कोई बात नहीं ,
कैसे संजीदा है हालात सुनाऊँ कैसे .

दोस्तो तुम भी तो कुछ रोज सब्र कर लेना,
जेब खाली है अभी तुमको पिलाऊँ कैसे .

वो मेरे दिल को दुखाता है ये उस की मर्ज़ी
अपनी मर्ज़ी से मैं दिल उसका दुखाऊँ कैसे.

ता.28-10-08 समय-7.305PM

2 टिप्‍पणियां:

  1. Ek gazal men ek aam admi ke dard ko isse behtar aur kya vyakt kiya ja sakta hai, achhi rachna lagi. Diwali ke deepakon ka prakash aapke jeevan path ko hamesha aalokit karta rahe, yahi shubh kamnayen hain.

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  2. नफ़रतें खा गयी मासूम कई दीपों को
    टूटे दिल से मैं भला दीप जलाऊँ कैसे.

    आग गंगा में लगे, या वो लगे झेलम में.
    अपने अश्कों से मैं ,ये आग बुझाऊँ कैसे

    यह दो शेर बहुत ज़्यादा मुतास्सिर कर गए
    दिवाली की नेक खाहीशात क़बूल फ़रमाएँ

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