शुक्रवार, 23 जनवरी 2009

गोधरा रोशनी पर शहेरा अँधेरा है बहुत.



अपने अहमदाबाद से हुए अचानक शहरा गांव निष्काषन पर हुक्मरानों के नाम ये ग़ज़ल
ग़ज़ल
जब से आये हैं तेरे गांव में चर्चा है बहुत.
गोधरा रोशनी पर शहेरा अँधेरा है बहुत.

शहर से उसने निकाला मगर हमें देखो,
लब पे मुस्कान मगर दिल तो ये रोया है बहुत.

हाथ काटे हैं सितमगर ने हुनर पर मेरे,
मेरी आँखों में ज़िन्दगी का उजाला है बहुत.

ये अलग बात है सब भूल गये हैं हमको,
मेरी रातों में ये कौन चमकता है बहुत.

शोख नदियों को वो पी जाते हैं रफ्ता रफ़्ता,
अपना दिल मछली सा पानी को तड़पा है बहुत.

जिस्म हैं गांव में दिल उनको याद करता है,
मेरे बच्चो तेरा मज़बूर ये पापा है बहुत.

क़त्ल के बाद सुना है कि मेरे क़ातिल भी,
अपनें संज़ीदा गुनाहों पे परेशा है बहुत.
जश्न हम कैसे मनायें कि लुट गये हम तो,
वो मसीहा सही पर सब ने तो लूटा है बहुत.
डॉ सुभाष भदौरिया.शहेरा (गोधरा के पास)

1 टिप्पणी:

  1. आपकी मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति को नमन


    विस्थापन का दर्द
    .... साफ झलकता है इस ग़ज़ल में... भाई ... क्या कहूँ ?


    दुष्यंत कुमार का शेर सांतवना देता है


    दर्दे-दिल वक़्त पे पैग़ाम भी पहुंचाएगा

    इस कबूतर को ज़रा प्यार से पालो यारो

    सादर

    द्विजेन्द्र द्विज

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