ग़ज़ल
घर मेरे उसने जो आना चाहा.
रास्ता सबने भुलाना चाहा.
घर मेरे उसने जो आना चाहा.
रास्ता सबने भुलाना चाहा.
और भी सर पे चढ़ गये अपने,
हमने उनको जो मनाना चाहा.
हमने उनको जो मनाना चाहा.
कान पर हाथ रख लिए उसने,
हमने दुखड़ा जो सुनाना चाहा.
हमने दुखड़ा जो सुनाना चाहा.
तोड़ने का रहा जुनूं उसको,
हमने रिश्ता तो निभाना चाहा.
हमने रिश्ता तो निभाना चाहा.
राज़ सब पर अयां ना हो जाये,
हमने ज़ख़्मों को छिपाना चाहा.
हमने ज़ख़्मों को छिपाना चाहा.
आँधियां आगयीं बुझाने को,
दीप हमने जो जलाना चाहा.
दीप हमने जो जलाना चाहा.
ऐब मेरे गिना के सब उसने,
दूर जाने का बहाना चाहा.
दूर जाने का बहाना चाहा.
ऐक तेरी थी जुस्तजू हमको,
कब भला हमने ख़ज़ाना चाहा.
कब भला हमने ख़ज़ाना चाहा.
डॉ.सुभाष भदौरिया ता.12-6-09 समय 11-40AM
वाह वाह सुभाष जी..क्या खूब गजलें हैं...बहुत ही उम्दा..मजा आ गया..शुभकामनायें...
जवाब देंहटाएंबहुत ही नेक ख्याल है ......ऐसे ही लिखते रहे.
जवाब देंहटाएंgazab kar rahe ho...................
जवाब देंहटाएंaaj to aanand aagaya
bahut khoob !
आ रह्यो गुजराती ब्लॉग एग्रीगेटर :
जवाब देंहटाएंotalo.tarakash.com
डॉ. साहब बहुत खूब, एक तेरी थी जुस्तजू, हमने कब खज़ाना चाहा। आहा!
जवाब देंहटाएंवाह!! क्या बात है..अनोखी!!
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