रविवार, 19 जुलाई 2009

मेरे हाथों से अब तक महक ना गई उनकी ज़ुल्फ़ों को छेड़े ज़माने हुए.

ग़ज़ल
मेरे हाथों से अब तक, महक ना गई,
उनकी ज़ुल्फ़ों को छेड़े ज़माने हुए.
मेरी सांसों का जादू है अब तक ज़वां,
हमने माना कि रिश्ते पुराने हुए.

ये कसक,ये तड़प, ये जलन, ये धुआँ,
उस मुहब्बत की बख़्शी ये सौगात है,
साज़ो-आवाज़ ये, शेरो-शायरी,
उनसे मिलने के कितने बहाने हुए.

वो मिले भी कब, अब तुम्हीं देखलो,
मेंहदी हाथों की बालों में जब आ गई,
मेरी रातों को अब फिर से पर लग गये,
मेरे तपते हुए दिन सुहाने हुए.

हाथ में हाथ फिर ले लिया आपने,
पेड़ सूखा हरा कर दिया आपने,
ज़िन्दगी की सुलगती हुई धूप में,
तेरी चाहत के फिर शामियाने हुए.

तेरी ही आश ने मुझको ज़िन्दा रखा,
मौत आयी बुलाने मना कर दिया,
तीर जब भी चले दुश्मनों के यहाँ,
एक हम ही तो थे जो निशाने हुए.

रुखी सूखी में हमने गुज़ारा किया,
उनकी चौखट पे सर ना झुकाया कभी,
अब तो सौदागरों को अफ़सोस है,
उनके बेकार सारे खज़ाने हुए.

डॉ.सुभाष भदौरिया ता.19-07-9

5 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन गजल भदौरिया साहब। वाह।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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  2. भाई वाह भदौरिया जी,

    हाथ में हाथ फिर ले लिया आपने

    पेड़ सूखा हरा कर दिया आपने

    जिन्दगी की सुलगती हुई धूप में

    तेरी चाहत के लिए फिर शामियाने हुए

    और हम आपकी इस गजल के दीवाने हुए ।

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  3. सुभाष जी बहुत अरसे बाद आपको इस रंग में देख कर तबियत खुश हो गयी...दुश्मनों के दांत खट्टे करना कोई आपसे सीखे...आप के जज्बे को सलाम. आप की ये ग़ज़ल आपके ख्यालों की तरह बेहद खूबसूरत है...वाह...दाद कबूल कीजिये.
    नीरज

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  4. श्यामलजी मनोजजी ग़ज़ल आपको पंसन्द आयी शुक्रिया.
    पाठकों की मुहब्बत के तलबगार पहले भी थे आज भी हैं.उनकी नवाज़िश ही फ़न को चमकाती है. रचनाकार से पाठक का दर्ज़ा काफी ऊँचा होता हैं उनकी डांट खाने में भी लुत्फ़ आता है.
    ग़म तो उन संग दिल पाठकों का है जो आते तो हैं पर अपनी गाली के लायक भी नहीं समझते.
    और नीरज हमारे रंग का मत पूछो,
    बकौलो ग़ालिब
    बनाकर फकीरों का हम भेष ग़ालिब,
    तमाशा-ए अहले करम देखते है.
    आपकी दाद तो क्या संग भू क़ुबूल साहब.आते जाते रहिए. आमीन.

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