गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

आओ मिस काल करके ही देखें उसे.

ग़ज़ल
वो न आया दुबारा शहर दोस्तो.
लग गई उसको किसकी नज़र दोस्तो.

आओ मिस काल कर के ही देखें उसे,
हो रही उसकी कैसे गुज़र दोस्तो.

उसको पिंज़ड़े में रहना गवारा न था,
कट गये उसमें ही उसके पर दोस्तो.

धूप में रह के जो छांव देता रहा,
मिल के काटा सभी ने शज़र दोस्तो.

ग़ैर तो ग़ैर उनका गिला क्या करें,
अपनो ने भी कहाँ की कदर दोस्तो.

फोन की घंटियाँ सर्द हैं इन दिनो,
कोई लेता नहीं अब ख़बर दोस्तो.
डॉ.सुभाष भदौरिया मोब.97249 49570 ता.03-12-09

5 टिप्‍पणियां:

  1. वंदनाजी आप सह्दया लगती हैं सो आप हमारी सुधि ले बैठीं.बाकी हम ख़ाना ख़राबों को कौन पूछता है.
    आप अछान्दस कवितायें लिखती हैं आपके ब्लाग पर जाकर देखा तो पता चला. कविता कान की कला है छन्द उन्हें दीर्घकाल तक जीवित रखते हैं छन्दों में संप्रेषणीयता और भी बढ़जाती है मेरी प्रकृति छन्द बद्धकविता की होने से आपकी कविताओं को पढ़ तो गया पर टिप्पणी न कर सका.आपके ब्लाग पर सजे फूलों की कशिश के क्या कहने कोई भी सुधि खो बैठे हम बड़ी मुश्किल से बचकर निकल आये.

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  2. बेहतरीन! ताले में लगा के रखें है जी इन शेरों को। कापी करना भी मुश्किल!आज वाली गजल पढ़ी तब आये इधर! सुन्दर!

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  3. आदरणीय अनूपजी कल आपने गरीब को जो फोन करके हाल पूछा मेरा ग़ज़ल लिखना सार्थक हो गया.
    ब्लाग की दुनिया में कोई हमारा भी ग़मगुसार चारासाज़ है इसका आपने अहसास दिलाया.मैं सरेआम क़बूल करता हूँ कि लेखक से पाठक का दर्ज़ा एक हाथ ऊँचा है पाठक ही उसे संवारते हैं. आपको अक्सर पढ़ता हूँ आप बड़े सहज ढंग से संज़ीदा बात कहते हैं. आपकी एक लाइना का कोई ज़बाब नहीं होता.
    जब आपने कल फोन कर ब्लाग पर लगे ताले को हटाने की बात की मैंने अपनीं ग़ज़लों की पूर्व हुई चोरी की बात की तो आपने बड़ी अच्छी सलाह दी तु्म्हारा कोई इल्म नही चुरा ले जायेगा.
    मैं आप जैसे संज़ीदा पाठक सी सलाह पर अमल करते हुए तस्वीर और लेखन पर लगे तालों को खोल रहा हूँ.चोर और साहूकार दोनों का स्वागत है.
    आप कवियों की अक्सर जमकर खिचाई करते हैं पर हमारी ग़ज़लों की जाने कौनसी अदा पसंद आ गयी की आप को कापी करने की इच्छा जागृत हो गयी.
    लीजिए साहब हम अपनी ग़ज़लों की दौलत जो हमारे रिसते ज़ख्म हैं हम आज सरेआम नुमाया करे रहे हैं. बस आप गरीब खाने पे आते जाते रहिए. आमीन.

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  4. आपने फिर से ब्लॉग जगत में आ कर हम जैसों पर बहुत उपकार किया है...आप के पुराने फैन रहे हैं हम भाई...आप से बहुत कुछ सीखा है...अब आप की ग़ज़ल पढ़ कर जो सुकून मिला है उसकी क्या बताएं...आप अपने पुराने मिजाज़ को भूल नए रंग में नज़र आये हैं...हालात से दोस्ती कर लो तो तल्खी कम हो जाती है...एक बार बातों बातों में भाई राकेश खंडेलवाल जो अमेरिका में रहते हैं से आपकी बात चल रही थी वो बोले की सुभाष जी जब भी अपने असली रंग में ग़ज़ल कहते हैं तो उस्तादों को भी पसीना आ जाता है...आज आप के इस नए सफ़र की ग़ज़लों को पढ़ कर उस बात की सच्चाई को जाना...इश्वर से प्रार्थना करता हूँ की वो आप को हमेशा ऐसा ही बनाये रखे और आप को वो सब कुछ दे जिसके आप हकदार हैं...

    नीरज

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