गुरुवार, 7 जनवरी 2010

अपने होठों से क्या छू दिया आपने !

ग़ज़लजिस्म में अपने वो गर्मियाँ ना रहीं.
उनके चेहरे पे भी सुर्ख़ियाँ ना रहीं.

पीछे-पीछे कभी जिनके भागा किये,
बाग में वो हसीं तितलियाँ ना रहीं.

रफ़्ता रफ़्ता क़रीब आ गये आपके,
बीच में अपने अब दूरियाँ ना रहीं.

अपने होठों से क्या छू दिया आपने,
ज़िन्दगी में कोई तल्ख़ियाँ ना रहीं.

चंद बगुलों की ही ये करामात है,
शेष पानी रहा मछलियाँ ना रहीं.

हँसते हँसते मिटें जो वतन के लिए,
मुल्क में मेरे वो हस्तियाँ ना रहीं.

डॉ.सुभाष भदौरिया ता.07-01-10

7 टिप्‍पणियां:

  1. चंद बगुलों की ही ये करामात है,
    शेष पानी रहा मछलियाँ ना रहीं.
    बहुत सुन्दर गज़ल है.

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  2. अपने होठों से क्या छू दिया आपने,
    ज़िन्दगी में कोई तल्ख़ियाँ ना रहीं.

    सुभान अल्लाह सुभाष जी...ये एक ही नहीं ग़ज़ल के सभी शेर लाजवाब हैं...आपको पढने से जो सुकून मिलता है उसे बयां करना संभव नहीं...लिखते रहें...
    नीरज

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  3. 1-वंदनाजी आप कविता में इस्तेमाल प्रतीकों को शीघ्र समझ लेती हैं. सपाट बयानी कविता का दोष माना जाता है.
    वास्तव में देखा जाय तो ग़ज़ल में रम्ज़ो इशारों में ही बात की जाती है.ग़ज़ल का मतलब ही है औरतों से गुफ़्तगू करना और औरतों से गुफ़्तगू करीने से की जाती है.
    यूं तो ग़ज़ल के विषय वर्णन में काफ़ी परिर्वतन आये हैं.समाज सियासत कुछ भी अछूता नहीं हैं. मैने ख़ुदने ग़ज़ल को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है.
    पर मुझे लगता है इस संज़ीदा काव्यरूप का प्रयोग दिली जज़्बात को व्यक्त करने में ज़्यादा माफ़क है.
    आपका मात्र सुंदर ग़ज़ल कहने से काम नहीं चलेगा. आप हमारी काफ़ी संज़ीदा पाठक हैं जहां कहीं भी विचलन देखें तो ज़रूर अपनी बेबाक राय दें.
    मैने हमेशा माना है पाठक ही रचनाकार को सँवारते हैं उन्हें नये आयाम देते हैं और ब्लाग में तो ये सुविधा बहुत ही कारगर लगती है.
    गुजराती भाषा में ग़ज़ल का इतिहास 100 वर्ष पुराना है.शिल्प उर्दू ग़ज़लों जैसा ही है. पर विषय वस्तु में काफी अंतर नज़र आता है.
    गुजराती ग़ज़ल के ग़ालिब माने जाने वाले मर्हूम शायर मरीज़ साहब का
    एक शेर है-

    हो गुर्जरी नी ओथ की उर्दू नी हो मरीज़,
    ग़ज़लो फ़कत लखाय छे दिल नी ज़बानमां.
    हिन्दी मे अनुवाद करें तो -
    हो गुर्जरी की ओथ की उर्दू की अय मरीज़,
    ग़ज़लें तो लिखी जाय हैं दिल की ज़बान में,

    जो लोग टिप्पणियों के भीड़ पर गदगद हैं उन्हें मरीज़ का गुजराती भाषा में कहा गया शेर समझने की ज़रूरत है-

    बे जणा दिल थी मणे तो एक मज़लिस छे मरीज़,
    दिल वगर लाखों मणे एने सभा कहता नथी.
    अर्थात-

    दो जनें दिल से मिलें तो एक मज़लिस है मरीज़,
    दिल बिना लाखों मिलें उसको सभा कहते नहीं.

    रही हमारी बात तो हमारे लिए ब्लाग अपनी दिल की बात कहने का एक सशक्त माध्यम हैं किसी के दिल तक बात पहुँचती है तो सुकून ज़रूर मिलता हैं.हमारी दर्द की अंजुमन में आपका आना और अपनी नवाज़िश से मालामाल करना गरीब की कुटिया में उजाला करता है.आते जाते रहिए मोहतरमा आपका गद्य लेखन बहुत ही मार्मिक है.
    आपकी बचपन की स्मृतियों वाली पोस्ट मेरे ज़हन में अभी भी ताज़ा है. बयान ज़ारी रखिए.
    2-वंदनाजी आपकी कविताओं को निरंतर पढ़ रहा हूँ.आप के ब्लाग पर ताज़ा प्रकाशित कविता के बारे में एक उर्दू का शेर टंकित करने की इच्छा हुई थी पर आपको बुरा न लग जायइसलिए खुद को रोक लिया.
    आप निरंतर हमारे ब्लाग पर अपनी हाज़िरी दर्ज़ कर रही हैं तो ये ज़ोखम उठा रहा हूँ.
    उर्दू के किसी मश्हूर शायर का शेर है-

    नज़र उसकी,ज़बा उसकी,तअज्जुब है मगर फिर भी,
    नज़र कुछ और कहती है,ज़बां कुछ और कहती है.

    आपकी नज़र में इक़रार छुपा है और ज़बा पे इन्कार और आदर्श का मुलम्मा. आप अपनी कविता
    सच्चे प्रेम के दो बोल मरते वख्त नसीब हो जायें तो मौत भी ख़ुशनुमा हो जाती है.आप अपनी कविता में सारी उम्मीदों को छोड़ते हुए क्या क्या नसीहत दे रही हैं सुनने में अच्छा तो ज़रूर लगता है पर सच नहीं लगता .
    आशा है कि उपरोक्त शेर आप तक पहुंचे और आपकी कविता मे अगले बयान में कुछ सच सामने आयें.उम्मीद है आप हमारी बात को गंभीरता से लेंगी और बुरा न मान कर आती जाती रहेंगी.आमीन.

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  4. नीरजजी आपकी मुहब्बत कहीं बीमार न कर दे.
    आप खुद ग़ज़लगो हैं.अच्छी सोच के मालिक और हमें दिल से दाद देते हैं ये हमारे लिए किसी दौलत से कम नहीं.आते जाते रहिए मेरे महरबां आमीन.

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  5. पीछे-पीछे कभी जिनके भागा किये,
    बाग में वो हसीं तितलियाँ ना रहीं।
    शाानदार गजल का शाानदार शेर:
    एक आैर शानदार गजल के लिए बधाई

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  6. प्रणाम दद्दा आप जब भी आते हैं वतन की खुश्बू से हमारा ब्लाग महक उठता है.खैर खबर लेते रहिए श्रीमान.

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