शनिवार, 29 मई 2010

बादल ये मुहब्बत के कहीँ और बरसते हैं.

ग़ज़लबादल ये मुहब्बत के कहीं और बरसते हैं.
इक बूँद की खातिर हम वरसों से तरसते हैं.

फ़ुरसत ही नहीं मिलती, मिलने की तुम्हें हमसे,
क्या दिल में तुम्हारे है, हम खूब समझते हैं.

कदमों की तेरे आहट, फिर हमको सुनाई दे,
राहों में जो तन्हा हम, सड़कों पे भटकते हैं.

मैं लाख भुलाऊँ पर, भूले से भी ना भूलूँ,
यादों की तेरे जुगनूँ रातों में चमकते हैं.

दिल है ये मेरा कोई, या भूत का डेरा है,
आयें तो मुसाफिर पर, ज़्यादा न ठहरते हैं.

डॉ.सुभाष भदौरिया ता.29-5-10

8 टिप्‍पणियां:

  1. दिल है ये मेरा कोई, या भूत का डेरा है,
    आयें तो मुसाफिर पर, ज़्यादा न ठहरते हैं.
    इन मुसाफिरों को ठहरने न देना है, न जाने कब इस दिल का स्थाई निवासी आ धमके
    सुन्दर गज़ल

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  2. 1-नीलेशजी आपका हमारे ब्लाग पर स्वागत है आपका ब्लाग आदतन देखा पसन्द आया बयान ज़ारी रहे.
    2-संगीताजी बहुत ही भाव प्रबल अछान्दस रचनायें लिखती हैं अनभूति की प्रामाणिकता बरबस ध्यान खीचती है.अल्लाह करे ज़ोरे कलम और ज़्यादा.
    3- गुरु महाराज वर्माजी दिल का कोई स्थाई निवासी ही अगर होता तो काहे का रोना था.स्थाई निवासियों का पता तो ईंट सीमेन्ट के मकान होते हैं वे जिस्म से आगे नहीं बढ़ पाते दिल तक पहुँचना सब की बात नहीं. आपके ब्लाग देखे,अछान्दस कविता,कहानी पर भी नज़र डाली,खास कर व्यंग्य बडें ही मार्मिक हैं आपके. हमें भी लपेट लिया न दादा. अब क्या करें कोई मुसाफिर थोड़ा हमारे दिल में ठहरना भी चाहे तो आप हमें आगाह नहीं कर रहे पर उसे भड़का रहें हैं कोई भूल से ठहर न जाये.

    अपनी पूर्व ग़ज़ल का मतला याद आ गया जो आप जनाब की नज़र है-

    घर मेरे उसने जो आना चाहा.
    रास्ता सबने भुलाना चाहा.
    4-नदीम तु्म्हें रचना सुंदर लगी तुम्हें अभी सियासत नहीं आती तभी सुंदर कहके ठहर गये.तुमने उसे महसूस किया किसी को उकसाया नहीं क्योंकि अभी तुम ज्ञानी जो नहीं हुए.तुम्हारे ब्लाग पर तुम्हारी सहज अभिव्यक्तियाँ उतनी ही सुंदर और मासूम हैं जितने की तुम.

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  3. इक बूँद की खातिर हम वरसों से तरसते हैं...खूबसूरत ग़ज़ल...

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  4. 1-वंदनाजी,
    दिल है ये मेरा कोई,या भूत का डेरा है,
    आयें तो मुसाफिर पर,ज़्यादा ना ठहरते हैं.

    उपरोक्त शेर आप जैसे कद्रदानों के लिए ही है बस दिल की जगहआप ब्लाग पढिये.
    मेरी प्रकृति छन्द बद्ध कविता की है आपकी रचनाओं को नियमित पढ़ता हूँ आपकी निम्न अछान्दस रचना का जबाब नहीं और उसको तरतीब से लिखने का अंदाज़ भी अनौखा है-

    तुझे देखा,
    नहीं हुई.

    तुझे पाया,
    नहीं हुई.

    तुझे चाहा,
    नहीं हुई.

    तुझे जाना,
    मोहब्बत हो गयी.

    आपने दिनकर की महाकृति उर्वशी की याद दिला दी-

    बाहर सांकल नहीं जिसे तू खोल ह्दय पा जाये.
    इस मंदिर का द्वार सदा अंतापुर से खुलता है- (उर्वशी-दिनकर)

    आपको जब भी पढ़ा दिनकर की पुरुरवा उर्वशी संवाद की याद आयी.मैंने इस कृति को वर्षो एम.ए.की कक्षा में पढ़ाया आपकी शैली भी इससे काफी मेल खाती है.अब इससे बेहतरीन राय हम आपके बारे में दे नहीं सकते.
    अगर आपने इस कृति को अब तक न पढ़ा हो तो ज़रूर पढ़िए.
    भूले भटके मुसाफिर दुबारा आते हैं तो ब्लाग भी महक उठता है और दिल भी.आते जाते रहिए.
    2- पवनजी आपके ब्लाग को देखा बहुत ही संवेदनशील रचनायें लिखते हैं आप.
    आपकी कमीज़ अछान्दस रचना स्पर्श कर गयी
    खास कर ये पंक्तियाँ-
    किसी का कमीज़ के साथ रिश्ता बनाना-
    किसी का रिश्तों को कमीज़ की तरह बदलना.

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