बुधवार, 16 जून 2010

गुजरात के बोलो तो साहब जलते हुए मंज़र देखे हैं ?





ग़ज़ल
जंगल के दरिन्दे तो देखे, बस्ती के पयंबर देखे हैं ?
गुजरात के बोलो तो साहब जलते हुए मंज़र देखे हैं ?

गाते हो समन्दर की गाथा, लहरों की अदा पे रीझे हो,
हे महामहिम बोलो तो सही, आँखों के समन्दर देखे हैं.

रो-रो के सिसकर मांगे थे जो जान को अपनी मुश्किलमें ,
मज़्लूम व मुफ़लिस लोगों पे चलते हुए ख़ंजर देखे हैं.

बचकर न कोई जाने पाये, तुम नस्ल मिटादो अब उनकी,
ऐलान हुए कैसे- कैसे, ऐसे कहीं मिंबर देखे हैं,

आबाद कभी थे वो भी कभी क्या खूब बुलन्दी थी उनकी,
हैं ज़ेरे-नज़र जो आज यहाँ रोते हुए खंड्हर देखे हैं.

घर बार गवाँ बैठे अपना, दामन न कभी सच का छोड़ा,
इस दौरे-अदाकारी में कहो हम जैसे कलन्दर देखे हैं.

ये ग़ज़ल उपरोक्त तस्वीरों से वाबस्ता है. अहले नज़र इसको बखूबी समझेंगे नाबीनों से हम मुख़ातिब भी कहाँ हैं. शहंशाहे अदाकारी और शहंशाहे गुजरात की जुगलबंदी क्या गुल खिलाती है इस पर हमारी ही नहीं सारे मुल्क की नज़र है.
डॉ.सुभाष भदौरिया. ता. 16-6-10 Email. Subhash_bhadauriasb@yahoo.com
Principal Government Arts college Shehara.Gujarat.

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर भदौरिया साहब ! समसामयिक गजल

    जवाब देंहटाएं
  2. कम से कम एक गैर-सेक्युलर तो मिला जो गुजरात की बात कर सकता है. बाकी तो सेक्युलर जमातों के चरण-चुंबन में जुटे हैं.

    जवाब देंहटाएं
  3. कांग्रेस??? सिख??? उन्नीस सौ चौरासी ????

    जवाब देंहटाएं
  4. 1-पी.सी.गोदियालजी आपको ग़ज़ल समसामयिक लगी शुक्रिया जनाब. आपका ब्लाग देखा अच्छी सोच के मालिक हैं आप हमारे ब्लाग पर स्वागत है आपका.
    2-सत्यजीत प्रकाश आपकी प्रोफाइल नहीं मिली ऐसा क्यों सत्य का आलोक स्वयं में शक्तिमान होता हैं वह अँधेरोंकी आढ़ नहीं लेता.
    गैर सैक्यूलर और सैक्यूलर ढफली बजाने वाले मदारियों से हमारा कोई वास्ता नहीं.
    रही चुंबन की बात तो उसके अनगिनित क्षेत्र है अपनी अपनी पंसद उसमें हम कोई मश्वरा नहीं दे सकते.
    गुजरात की बात करने और उसको जीने में काफी फर्क है साहब आप हमें बात करने वालों में शामिल मत कीजिये.फ़सादात के दरम्यान आफिस से घर का रास्ता कितना तवील हो जाता है ये हम से बेहतर कौन जाता है और राह देखती बीबी का मोबाइल पर बार बार पूछना कहाँ हो और हमारा कहना ठीक हूँ वह तस्कीन करना चाहती है परिन्दा सलामत है भी या नहीं. खैर हमारा तो जन्म ही गुजरात का है सो दंगो को बचपन से देखा है क्या कहें-
    हरजीत सिंह की पंक्तियां याद आगयीं.

    क्या सुनायें कहानियाँ अपनी.
    पेड़ अपने हैँ आँधियाँ अपनी.
    3-इंडिलजी नमस्कार हम नये नहीं हैं फिर भी आप शामिल करें तो हमें एतिराज़ भी नहीं.
    4- भारतीय नागरिक हम बाहर के नहीं है इसलिए इतिहास और भूगोल दोनों से वाकिफ़ हैं. आपके ब्लाग को देखा ग़जब का संतुलन और नज़र दोनो ही आपके पास हैं.
    हमें याद दिलाने की ज़हमत उठाई आपने उसके लिए आपका शुक्रिया.आते जाते रहिए श्रीमान क्योंकि बुढापे में मति भ्रम को होना स्वाभाविक है आप जैसे चारागर का का ख़ैर ख़बर लेना निहायत ज़रूरी है.आमीन.

    जवाब देंहटाएं