बुधवार, 17 नवंबर 2010

ये उदासी मेरे दिल की नहीं जाने वाली.

ग़ज़ल

ये उदासी मेरे दिल की नहीं जाने वाली.
हाथ अब ज़िन्दगी वापस नहीं आने वाली.

कैसे जीते हो बिछुड़कर भला तन्हाई में,
बात मत पूछो कोई मुझसे रुलाने वाली.

लाश अपनी को में काँधे पे लिए फिरता हूँ,
आग ढूँढ़े हूँ कोई उस को जलाने वाली.

गर्म होटों ने,सुर्ख़ होटों का पूछा था मिज़ाज ?
उसकी लज़्ज़त नहीं होटों से भुलाने वाली.

इसको सुनने में गुज़र जायेंगी सदियां लोगो,
उसकी उल्फ़त नहीं लफ़्ज़ों में समाने वाली.

ग़ैर तो ग़ैर हैं अपनों ने चुभोये नश्तर,
कैसे में बात करूँ तुमको सुहाने वाली.

तुम भी इस दिल को दुखालो तो कोई बात नहीं,
मुझको हर शै ही मिली दिल को दुखाने वाली.

डॉ. सुभाष भदौरिया ता.17-11-2010.

4 टिप्‍पणियां:

  1. तुम भी इस दिल को दुखालो तो कोई बात नहीं,
    मुझको हर शै ही मिली दिल को दुखाने वाली.
    umda gazal. aabhar.

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  2. आदरणीय डॉ. सुभाष भदौरिया जी
    नमस्कार !

    अच्छी ग़ज़ल कही है…

    … लेकिन पहले वाली रचनाओं के मिज़ाज और मयार की नहीं लगी ।

    कई बार आपके यहां आ चुका हूं , मेरे ब्लॉगशस्वरं पर भी आपका ब्लॉग सम्मिलित है । आपको भी मेरे यहां आने का आमंत्रण है !

    शुभकामनाओं सहित
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  3. राजेन्द्रजी आपका ब्लाग पहले भी देखा आज भी और ग़ज़लों को सुना भी बड़ी दिलकश आवाज़ है आपकी
    गीत ग़ज़ल स्वर छन्द आदि का आपका ज्ञान सराहनीय है.
    अब आपकी उपरोक्त टिप्पणी के बारे में हमारी कैफ़ियत समझें.

    १-आदरणीय राजेन्द्रजी पहले वाली रचनाओं के मयार और मिज़ाज की उपरोक्त ग़ज़ल आपको नहीं लगी.
    २-आपसे अर्ज करूँ कि जैसा महसूस करता हूँ वैसा ही लिखता हूँ.प्रिंसीपली के प्रमोशन को एक वर्ष बीत गया हुक्मरानों ने साज़िश के तहत ऐसी दूर दराज़ की कोलेज में पटका कि परिवार से तो बिछुड़ा साथ ही अहमदाबाद जो एन.सी.सी. अफ्सर के रूप में राष्ट्र सेवा का अवसर था वो छिन गया जल्द ही एन.सी.सी. अफ्सर का हमारा कमीशन रद्द हो जायेगा. जो कामटी(नागपूर)ट्रेनिंग में महीनो लिया था.शारीरिक मानसिक क्या क्या सितम सहे थे.शरीर के सारे अंजर
    पंजर डीले कर दिये गये थे. लेफ्ट राइट की कवाइत में दिमाग घुटनों में फौजी उस्तादों ने ला दिया था तब से वहीं हैं.
    कईयों को तो हमारे दिमाग होने पर भी शक है इस पर रिसर्च हो सकती है.दिमाग होता तो पालतू बने, पूछ हिलाते राजधानी गाँधीनगर या किसी बड़े शहर में होते एक सबसे पिछडे गाँव शहरा में नहीं.
    बस यही एन.सी.सी काग़म खाये जा रहा है. युनिफोर्म छिन जाने का ग़म क्या होता है इसी कोई युनिफोर्म वाला ही जान सकता है. दूसेर ग़म तो सीने से लगाने के काबिल हैं उनकी वज़ह से ही जी रहा हूँ.
    ३- गुजरात सरकार में वर्ग एक के अधिकारी के रूप में कार्यरत हूँ हुकूमत की अपनी बंदिशे होती हैं कोन्फीडेंशियल रिपोर्ट का बिगड़ना,इंक्रीमेंट रुकजाना,ट्रांसफर तो केरियर में सबसे ज़्यादा हैं.
    इन तमाम सज़ाओ को पहले भी झेला है अभी भी झेल रहा हूँ.

    मज़बूरी ये है कि बेटा उच्च शिक्षा के आखिरी चरण में और बिटिया ने उच्च शिक्षा में प्रवेश किया है सो कमज़र्फों को झेल रहा हूँ.
    ४- भाषा,तेवर,खयाल सब तल्ख़ हैं जानने वाले जानते हैं.
    ख़ैर जल्द अपने मिज़ाज में लौटूँगा. आमीन

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  4. लाश अपनी को में काँधे पे लिए फिरता हूँ,
    आग ढूँढ़े हूँ कोई उस को जलाने वाली.

    सुभान अल्लाह...वाह सुभाष जी वाह...दिल का दर्द उंडेल दिया है आज आपने अपनी इस गज़ल में...लाजवाब शेर कहें हैं....दाद कबूल करें...
    राजेंद्र जी को आपने लिखा वो सही है..आपके साथ जो हुआ वो हर उस इंसान के साथ होता है जो समझौता परस्त नहीं है, जिसने सर उठा कर जीने की कसम खा रखी है...ये तो सदियों से होता आया है...होता रहेगा...लेकिन जब जिस दिन आप जैसे दस बीस सुभाष इकठ्ठे हो गए तो इन हुक्मरानों को छाती का ढूढ़ याद आ जायेगा...हम सब उसी दिन की इन्तेज़ार में हैं.


    नीरज

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