सोमवार, 5 मार्च 2012

खा के ठोकर वो समझेगा शायद.


ग़ज़ल

खा के ठोकर वो समझेगा शायद.
मुझको खोकर वो समझेगा शायद.

बात हँसकर के जो नहीं समझा,
बात रोकर वो समझेगा शायद.

काग़ज़ी कश्ती पे रक्खे है यकीं,
सब डुबोकर वो समझेगा शायद.

दूरियों के पहाड़ इक बिस्तर,
साथ सोकर वो समझेगा शायद.

है बबूलों से आम की ख़्वाहिश,
बीज बोकर वो समझेगा शायद.

क्यों लहू रिसता है लफ़्ज़ो से मेरे ?
दिल चुभोकर वो समझेगा शायद.

कत्ल के आँखों से मिटते न निशा,
हाथ धोकर वो समझेगा शायद.

डॉ. सुभाष भदौरिया.

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