मंगलवार, 11 जून 2013

इश्क़ में हम तो जान दे बैठे


इश्क़ में हम तो जान दे बैठै.
ग़ज़ल
ये न समझो कि ख़ुदकुशी की है.
घर जला हमने रौशनी की है.

इश्क़ में हम तो जान दे बैठे,
दिल से उसने तो,दिल्लगी की है.

बाहरी होती तो,समझ लेते,
चोट उसने तो भीतरी की है.

तेरी ख़ातिर हां, तेरी ही ख़ातिर,
हमने बर्बाद ज़िन्दगी की है.

ग़ैर तो ग़ैर उनका क्या शिकवा,
अपनो न भी कहाँ कमी की है.

मर्हूम फ़नकार जिया ख़ान के नाम उपरोक्त ग़ज़ल है जो इस फ़ानी दुनियां को अचानक अलविदा कह गयीं. डॉ. सुभाष भदौरिया.







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