सोमवार, 2 सितंबर 2013

दिल तवाइफ़ का कोठा था अपना कोई,

ग़ज़ल

उम्र भर वो मेरा दिल दुखाते रहे.
हम ग़मों को गले से लगाते रहे.

दिल तवाइफ़ का कोठा था अपना कोई,
लोग आते रहे, लोग जाते  रहे.

आग थी कोई हमको जलाती रही,
आग से आग हम भी बुझाते रहे.

ज़िन्दगी क्या थी हमसे न पूछो ये तुम,
लाश थी अपने कांधे उठाते रहे.

रात को नींद आयी न तो ये किया,
थपकियाँ दे के दिल को सुलाते रहे.

यूँ तो रोये अकेले बहुत फूट कर,
महफिलों में मगर मुस्कराते रहे.

ये अलग बात उसने सुना ही नहीं,
दर्द-ए-दिल तो बहुत हम सुनाते रहे.



डॉ. सुभाष भदौरिया गुजरात.

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