ग़ज़ल
हमेशा एक सा दुनियाँ
में ये मौसम नहीं रहता.
लड़ो गर ग़म से तो फिर एक
दिन ये ग़म नहीं रहता.
मैं जूझूँगा अँधेरों
से मैं चूमुँगा सितारों को
मेरे दिल में हमेंशा
ही तेरा मातम नहीं रहता.
मैं दरिया हूँ, मैं सहरा हूँ, मैं मीठा
हूँ, मैं ख़ारा हूँ,
इन्हीं वज़अ से कोई भी
मेरा हमदम नहीं रहता.
हवायें फेंक देती हैं कई पुख़्ता दरख़्तों कों,
हमेंशा हुक्मरानी पर
कोई हाकि़म नहीं रहती.
यहाँ शोले भी रहते हैं, इन्हें समझो ये नादानो,
हमारी आँख का दीदा हमेशा
नम नहीं रहता.
तअलुक में ज़रूरी हैं
वफ़ादारी की ख़ुश्बू भी,
करें का क्या ऐसे रिश्तों
को जहां कुछ दम नहीं रहता.
डॉ. सुभाष भदौरिया. गुजरात.
हवायें फेंक देती हैं कई पुख़्ता दरख़्तों कों,
जवाब देंहटाएंहमेंशा हुक्मरानी पर कोई हाकि़म नहीं रहती.
nice
बहुत खूब !
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी रचना ! बधाई स्वीकार करें !
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आदरणीय सुभाष भदौरिया जी मुझे आपकी गज़लें अछि लगती है .. आपकी इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (09.09.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर की जाएगी, ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें .
जवाब देंहटाएंआदरणीया शालिनीजी,प्रिय राजेश,ललितजी,नीरजजी आप सभी की हौसला अफ़्ज़ाई के लिए शुक्रगुज़ार हूँ मुहब्बत बनाये रखिये.आमीन.
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