सोमवार, 7 अप्रैल 2014

दिल भी भूतों का है डेरा अपना,

ग़ज़ल
 ज़ख्म अपने कभी भरते ही नहीं.
और वे हैं कि समझते ही नहीं.

दिल भी भूतों का है डेरा अपना,
जो भी आये वो ठहरते ही नहीं.

तेरी मरजी है बरस चाहे जिधर,
अब तो दीवाने तरसते ही नहीं.

तूने जिस दिन से शहर छोड़ा है,
तेरी गलियों से गुज़रते ही नहीं.

आयने हसरतों के टूट गये,
भूल कर हम तो सँवरते ही नहीं.

तुमने पहले जो संभाला होता
आज हम ऐसे उजड़ते ही नहीं.


डॉ. सुभाष भदौरिया.गुजरात ता.07-04-2014




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