रविवार, 29 जून 2014

अब देंखें सफ़र अपना, ये जा के कहां अटके.




ग़ज़ल
अब देंखें सफ़र अपना, ये जा के कहां अटके.
सहरा में बहुत झुलसे, जंगल में बहुत भटके.

आँधी से कहो जाकर, तूफां को बताओ ये,
देखें हैं बलाओं के, हमने तो बहुत झटके.

आँखों में तो बसने की, किस्मत ही कहां अपनी,
आँखों में मगर सब की, दिन रात बहुत खटके.

तू अपनी अदाओं पें, इतरा न बहुत ज़ालिम,
दूकान लगा अपनी, तू और कहीं हटके .

आया जो कभी हद में, नीबू सा निचोड़ेंगे ,
मुश्किल है बुहत मुश्किल, दुश्मन वो मेरा छटके.


कट जाये जो सर अपना, धड़ जूझे है मैदा में.
है मौत की क्या हिम्मत, बाजू में मेरी फटके.

डॉ. सुभाष भदौरिया गुजरात. ता.09-06-2014




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