बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

इक बार तुम्हें देखा जिसने सब होश गवा बैठे अपने.



ग़ज़ल

होटों का तबस्सुम समझे हैं आँखों की ज़बा भी जाने हैं.
लाखों में तुम्हें अय जाने-ग़ज़ल हम दूर से ही पहिचाने हैं.


इक बार तुम्हें देखा जिसने सब होश गवा बैठे अपने,
मस्जिद से नमाज़ी भी गुम हैं सूने-सूने बुतख़ाने हैं.


होटों का तुम्हारे, सीरीपन, गालों पे दहकते अंगारे,
आँखों का तुम्हारे क्या कहना चलते फिरते मयखाने हैं.


फूलों से तुम्हारी क्या तुलना कलियां भी लगें फीकी फीकी.
हम भी तुम्हारे शैदाई हम भी तो तेरे दीवाने हैं.  


ये आग जलाती है हमको मालूम यहां पर है सबको,
जलने को मगर बेताब सभी हर सिम्त यहां परवाने हैं.

डॉ.सुभाष भदौरिया 






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