शनिवार, 4 अप्रैल 2015

तेरी ख़ुश्बू को इसमें ढूंढ़ते हैं. मेरे साथी मोबाइल सूँघते हैं.

ग़ज़ल
तेरी ख़ुश्बू को इसमें ढूंढ़ते हैं.
मेरे साथी मोबाइल सूँघते हैं.

मैं डीलिट यूँ तो कर देता हूँ सब कुछ,
मगर आँसू कहां ये सूखते हैं ?

तुम्हीं कह दो कहूँ, क्या उनसे अब मैं,
तेरे बारे में अब सब पूछते हैं.

ज़रा सी बात पे रूठे हो तुम तो,
कहीं अपनों से ऐसे रूठते हैं.

गिरे हैं टूटकर शाखों से पत्ते,
चले आओ कि हम भी टूटते हैं.

डॉ. सुभाष भदौरिया गुजरात ता.04-04-2015


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