ग़ज़ल
तेल मँहगा हुआ दाल मँहगी
हुई.
झोपड़ी की व्यथा और गहरी
हुई.
उड़ रहा आसमाँ में उसे
क्या पता ?
ज़िन्दगी हम ग़रीबों की
ठहरी हुई .
अब कटेगी ज़बां अब कटेगा
ये सर,
रात अब और ज़्यादा अँधेरी
हुई .
देश द्रोही को खाने के
लाले पड़े,
देश प्रेमी की फुल अब
तिजोरी हुई.
एक एक पे सौ सौ ने हमले
किये,
ये भी साहब कोई क्या
दिलेरी हुई.
जंग अब ये अमीरी गरीबी की है,
जंग अब ये
कहाँ तेरी मेरी हुई.
मौज़ूदा हालात के नाम डॉ.
सुभाष भदौरिया .
Behtareen Ghazal kahi hai aapne...hamesha ki tarah...waah
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