मंगलवार, 29 मार्च 2016

छाँव की फिर लगी याद आने.

ग़ज़ल
आँख सूरज लगा है दिखाने.
छाँव की फिर लगी याद आने.
हम तलबगार तेरे अभी भी,
तू चली आ किसी भी बहाने.
आँख तरसे है अब मुद्दतों से ,
तुझको देखे हुए हैं जमाने.
जुस्तजू एक तेरी ही थी बस,
हमने चाहे कहां थे ख़जाने ?
ज़िन्दगी क्या है अब पूछिये मत,
सांस के चल रहे कारखाने.
कोई गुज़री हुई याद आयी,
रोते रोते लगे मुस्कराने.
डॉ. सुभाष भदौरिया ता.29-03-2016




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