ग़ज़ल
हम वो नहीं जो धूप की गर्मी से पिघल जायें.
फेंकोगे जो सहरा में तो सहरा में भी खिल
जायें.
थोड़े से लड़खड़ाये क्या सोचा कि गिरेंगे,
हम रिन्द हैं वो पी के जो कुछ और सँभल जायें.
सुहबत का असर तेरी ये अब गुल ना खिलाये,
तेरे ही साथ साथ कहीं हम ना बदल जायें.
इस ख़ौफ़ से आँखों नें मेरी कर लिया पर्दा,
आँसू ना कहीं आँख से मेरी ये निकल जायें.
फिर ढूँढ़ते फिरोगे हमें दूर दूर तक ,
दुनियां से तेरी दूर कहीं हम ना निकल जायें.
डॉ. सुभाष भदौरिया. ता. 13-05-2016
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें