ग़ज़ल
इस दौर के हाक़िम की हर चाल निराली है.
सब्जी भी हई गायब खाली मेरी थाली है.
हमने तो कटोरी में डुबकी को लगा देखा,
है दाल बहुत मंहगी और जेब भी खाली है.
लोगों की लुगाई ने घर ऐसे संभाला है,
शक्कर न मिली गुड की फिर चाय बनाली है.
इन अच्छे दिनों से तो बेहतर थे पुराने दिन,
मँहगाई ने लोगों की अब नींद चुराली है .
इस योग से तो साहब ये पेट नहीं भरते,
हम जैसे गरीबों का दिल अब भी सवाली है.
अब सर को पकड़ कर के रोते हो बहुत लोगो,
जब नीम हकीमों से
तुम ने ही दवा ली है.
डॉ. सुभाष भदौरिया ता.28-06-2016
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