सोमवार, 17 अक्तूबर 2016

अणुं बोम्ब तुम भी डालो, अणुं बोम्ब हम भी डालें.

ग़ज़ल
अब आओ दोनों मिलकर अरमान ये निकालें.
अणुं बोम्ब तुम भी डालो, अणुं बोम्ब हम भी डालें.

अब रोज़ रोज़ की ये, खटपट ही ख़तम कर दें,
तुम हम को मार डालो, हम तुम को मार डालें.

कब किसने ज़हर घोला, कब किसने सांप पाले,
कभी पगड़ी तुम उछालो, कभी पगड़ी हम उछालें.

महफ़ूज़ आपके भी अब  घर कहां  बचें हैं ?
बारूद चाहे जितनी आँगन मेरे बिछालें.

नक्शे पे तुम कभी थे, नक्शे पे थे कभी हम,
भूगोल भी बदल दें इतिहास भी बनालें.

उपरोक्त गज़ल  मौज़ूदा हालात और हुक्मरानों के नाम जो ज़बानी जंग से मैदानी जंग की ओर हर लम्हा आगे  बढ़ते जा रहे हैं.

डॉ. सुभाष  भदौरिया गुजरात ता.15-10-2016



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