ग़ज़ल
इबादत घर ही कर लेते हैं बुतख़ाने नहीं जाते.
लगी है नोटबंदी जब से मैख़ाने नहीं जाते.
तवाइफ़ की भी आँखें थक गयी हैं राह तक-तक के,
अभी कोठे पे दिल को लोग बहलाने नहीं जाते.
मुहब्बत अब घरों बैठी बहुत मायूस रहती है,
अभी आशिक़ कहीं भी इश्क़ फ़र्माने नहीं जाते.
हमारी शक्ल पे हैं बज रहे कितने न पूछो अब .
हमीं ख़ुद आईने में ख़ुद को पहिचाने नहीं जाते.
सजायें चेहरे पे मुस्कान, लाखों कोशिशें
कर लें,
मगर उजड़े हुए दिल के ये वीराने नहीं जाते.
तअल्लुक़ तर्क भी कर लें, तेरी गलियों को भी
छोड़े,
मगर अय दोस्त छुटपन के ये याराने नहीं जाते.
डॉ.सुभाष भदौरिया ता.13-12-2016 गुजरात
चलिए कुछ आदत तो कुछ दिन दूर रहेगी
जवाब देंहटाएंफ़ालतू खर्च नहीं घर परिवार की बचत होगी
बहुत खूब