सोमवार, 26 जून 2017

बीच में अपने जो दूरियां हैं.


ग़ज़ल

बीच में अपने जो दूरियां हैं.
कुछ तो समझो ये मज्बूरियां हैं.

भीड़ में कोई ख़तरा नहीं हैं,
जान लेवा ये तन्हाइयां हैं.

शुहरतें  साथ  उनके हैं चलतीं,
साथ अपने तो रुस्वाइयां हैं.

ऐब ही देखती हैं मेरे वो,
उसने देखी कहां ख़ूबियां हैं.

हाल दिल का ये लिखती रहेंगी,
जब सलामत मेरी उंगलियां हैं.

थी बुलंदी पे पहले कभी ये,
आज उजड़ी जो ये झांकियां हैं.

डॉ. सुभाष भदौरिया ता.26-06-2017 गुजरात

13 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ख़ूब !आदरणीय ,सुन्दर व प्रभावी रचना आभार। "एकलव्य"

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  2. आदरणीय सुभाष जी , सादर प्रणाम | आपकी रचना के साथ पहली बार आपके रचना संसार में झांका | बहुत ख़ुशी हुई |आखिरी दो शेर मुझे खास अच्छे लगे -- आपकी रचना सचमुच मन को छूने वाली है | बहुत शुभकामना आपको ----------

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  4. आदरणीय सुभाष जी , सादर प्रणाम |आपकी रचना पढने के साथ ही पहली बार आपके रचना संसार में झांककर बहुत ख़ुशी हुई | आपकी रचना मन को छूने वाली है -- खासकर आखिरी दो शेर मुझे खास पसंद आये | आपको हार्दिक शुभकामना |

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  5. आदरणीय सुभाष जी , सादर प्रणाम |आपकी रचना पढने के साथ ही पहली बार आपके रचना संसार में झांककर बहुत ख़ुशी हुई | आपकी रचना मन को छूने वाली है -- खासकर आखिरी दो शेर मुझे खास पसंद आये | आपको हार्दिक शुभकामना |

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  6. आदरणीय सुभाष जी , सादर प्रणाम |आपकी रचना पढने के साथ ही पहली बार आपके रचना संसार में झांककर बहुत ख़ुशी हुई | आपकी रचना मन को छूने वाली है -- खासकर आखिरी दो शेर मुझे खास पसंद आये | आपको हार्दिक शुभकामना |

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  7. आप सभी कद्रदानों का आभारी हूँ.कृपा बनाये रखिये.

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