मंगलवार, 27 जून 2017

मुझको महसूस कर अय मेरे हमनशीं,


ग़ज़ल
रात दिन अब  तेरे मैं  ख़यालों  में हूँ.
मैं जवाबों में हूँ  मैं सवालों  में  हूँ.

मुझको महसूस कर अय मेरे हमनशीं,
उँगलियां बन  के फिरता मैं बालों में हूँ.

चांद को चूमने की करे  आर्ज़ू ,
मैं समन्दर की ऊँची  उछालों  में  हूँ.

जिसको मंज़िल मिले ना कभी उम्र भर,
पांव के ऐसे रिसते मैं छालों  में  हूँ.

मुझ से मत  पूछ तू ज़िंदगी का पता,
मुब्तिला आजकल किन बवालों में हूँ.
                    
               डॉ. सुभाष भदौरिया ता.27-06-2017 गुजरात


4 टिप्‍पणियां:

  1. उम्दा गज़ल है मित्र सुभाष जी की..

    जवाब देंहटाएं
  2. दादा सादर प्रणाम. बहुत दिन में ख़बर ली. आपके व्यंग्य लेख धारदार हैं मैं उनको अक्सर पढ़ता रहता हूँ. ब्लोगिंग के आप ख़लीफ़़ा हैं. आज आपका ब्लाग पर आना अच्छा लगा.ख़ैर ख़बर लेेेत रहिओ.

    जवाब देंहटाएं