सरहदों पे तो हम सर कटाते रहे.
सेल्फी अपनी वो तो खिचाते रहे.
कितने ख़ुदग़र्ज़ थे देशवासी मेरे,
चौकों छक्कों पे ताली बजाते रहे.
बात गन की ज़रूरी थी जिस वक्त में,
बात मन की वो अपनी सुनाते रहे.
आज भी अपने दुश्मन तो बेख़ौफ़ हैं ,
शाह आते रहे शाह जाते रहे.
कर्ज़ था मुल्क की हम पे मिट्टी का कुछ,
हम लहू दे के उसको चुकाते रहे.
दर बदर हो गये हम तो कुछ ग़म नहीं.
आईना आँधियों को दिखाते
रहे.
डॉ.सुभाष भदौरिया गुजरात
ता.05-06-2017
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