बुधवार, 23 अगस्त 2017

दिल भी भूतों का डेरा था अपना कोई,

ग़ज़ल
ताज़ा ताज़ा है ये ज़ख़्म गहरा नहीं.
अब ख़यालों पे है उसका पहरा नहीं.

दिल भी भूतों का डेरा था अपना कोई,
जो भा आया यहाँ ज़्यादा ठहरा नहीं.

वो सुनी अनसुनी कर गया सब मेरी,
मुझको मालूम था वो था बहरा नहीं.

छोड़ दे, छोड़ दे तेरी मर्ज़ी है ये,
टूटा खंडहर हूँ मैं, घर सुनहरा नहीं.

जाते जाते तो इक बार मिल ले गले,
बाद में ये न कहना कि पूछा नहीं.

मौसमों की तरह तू बदल जायेगा,
तेरे बारे में ऐसा था सोचा नहीं.

डॉ. सुभाष भदौरिया गुजरात ता.23—8-2017


2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ख़ूब ! क्या लिखते हैं बहुत सार्थक प्रयास आभार ,"एकलव्य"

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  2. सटीक और धारदार चिंतन की अभिव्यक्ति।

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