रविवार, 17 सितंबर 2017

लुच्चों ने मेरे मुल्क की चड्ड़ी उतार ली.

ग़ज़ल
कभी इसने मार ली तो,  कभी उसने मार ली.
लुच्चों ने मेरे मुल्क की चड्ड़ी उतार ली.

हिन्दू या मुसलमान मरें उनको क्या पड़ी,
गीधों ने भेड़ियों ने तो किस्मत संवार ली.

मज़्बूरियां ना पूछ ओ, जीने की सितमगर,
बच्चों की फीस बेंक से हमने उधार ली.

तुम अपनी अपनी ख़ैर मनइयो अय दोस्तो,
रो धो के सही हमने तो अपनी गुज़ार ली.

पंखे पे झूलते हुए लड़की ने ये कहा,
कब तक मैं जूझती लो चलो मैं तो हार ली.


डॉ. सुभाष भदौरिया ता.17-09-2017 गुजरात.



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