ग़ज़ल
अब तू ही बता
तेरा ग़म ऐसे मिटायें क्या.
तेरी ही सहेली
को, अब फिर से पटायें क्या.
दीदार तेरे हमको
हों सुब्ह- शाम हरदम,
गलियों में तेरी
बुल्लट, अब ट्रेन चलायें क्या.
कोई ताज़ नया सर
पे आ जायें हमारे भी,
वादों का कहो
चूरन हम सब को चटायें क्या.
घर तेरे फिर आने
का कोई तो बहाना हो,
अब्बू की तेरी
फिर से अब टांग तुड़ायें क्या.
तोहफ़ा तुझे देने
को, वो फिर से करें तिकड़म,
मोलों में जा के
फिर से अब हार चुरायें क्या.
अब हम भी बने
बाबा और खोलें अपना ढाबा,
भक्तों और भक्तिन
को अब चूना लगायें क्या.
डॉ. सुभाष
भदौरिया ता.19-09-2017 गुजरात
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