बुधवार, 27 दिसंबर 2017

वो पत्थर दिल पिघलता ही नहीं है.

ग़ज़ल

वो पत्थर दिल पिघलता ही नहीं है.
मेरा कुछ ज़ोर चलता ही नहीं है.

तकूं मैं राह सुब्ह-वो-शाम उसकी,
वो इस रस्ते निकलता ही नहीं है.

मैं दिल को यूं तो बहलाये बहुत हूँ,
ये उसके बिन बहलता ही नहीं है.

झरे हैं अश्रु बारोमास अपने,
यहाँ मौसम बदलता ही नहीं है.

ज़ख़ीरा ये तेरी यादों का अब तो,
संभाले से संभलता ही नहीं है.

हुआ गुम है ये अपना चांद जब से,
समन्दर दिल उछलता ही नहीं है.

भरे मौसम में ये दम तोड़ देता,
दरख़्ते इश्क फलता ही नहीं है.

डॉ. सुभाष भदौरिया गुजरात ता. 27-12-2017




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