शनिवार, 30 दिसंबर 2017

घर मेरे उसने जो आना चाहा.

ग़ज़ल

घर मेरे उसने जो आना चाहा.
रास्ता सबने भुलाना चाहा.

और भी सर पे चढ़ गये अपने,
हमने उनको जो मनाना चाहा

ऐब गिनवाके मेरे मुहसिन ने,
दूर जाने का बहाना चाहा.

तोड़ने का रहा जुनूं उसको,
हमने नाता तो निभाना चाहा.

एक तेरी थी तमन्ना हमको,
कब भला हमने ख़ज़ाना चाहा ?

हम बियांबा में भटकते अब भी,
तेरी आँखों में ठिकाना चाहा.

चाह महलों की कहाँ थी हमको,
बस तेरे दिल में समाना चाहा.

हम पहाड़ों से डटे हैं अब भी,
आँधियों ने तो गिराना चाहा.

डॉ. सुभाष भदौरिया गुजरात ता. 30-12-2017



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