ग़ज़ल
ये उदासी मेरे दिल की नहीं
जाने वाली.
हाथ अब ज़िंदगी वापस नहीं
आने वाली.
कैसे जीते हो अकेले भला तन्हाई
में,
बात मत पूछो कोई मुझसे
रुलाने वाली.
लाश अपनी को मैं काँधे पे
लिये फिरता हूँ,
आग ढूँढ़े हूँ कोई उसको
जलाने वाली.
तल्ख़ियां ही मेरे हिस्से में
मुझे दीं उसने
बात में कैसे कहूँ तुमको
सुहाने वाली.
हो ज़मी सारी ये काग़ज़ हो समन्दर स्याही,
दास्तां दिल की नहीं फिर भी समाने वाली.
डॉ. सुभाष भदौरिया गुजरात
ता.11-02-2018
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