रविवार, 1 अप्रैल 2018

रात दिन अब तेरे, मैं ख़यालों में हूँ.


ग़ज़ल

रात दिन अब तेरे, मैं ख़यालों में हूँ.
मैं जवाबों में हूँ, मैं सवालों में हूँ.

मुझको महसूस कर अय मेरे हमनशीं,
उँगलियाँ बन के फिरता मैं बालों में हूँ.

ज़िक्र महफिल में मेरा चले जो कभी,
सुर्खि़यां बन के तेरे मैं गालों में हूँ.

चाँद को चूमने की करे आरज़ू
मैं समन्दर की ऊँची उछालों में हूँ.


मुझको पीकर के देखे तो मालूम हो,
लुत्फ़ के आख़िरी मैं पियालों में हूँ

जानलेवा तड़प, जान लेवा कशिश,
मुब्तला जी की कैसी बवालों में हूँ ?

जिसको मंज़िल मिले ना कभी उम्रभर,
पाँव के ऐसे रिसते मैं छालों में हूँ.

ज़िन्दगी के बिना जी रहा किस तरह,
पूछिए मत कि कैसे कमालों में हूँ.

डॉ.सुभाष भदौरिया ता.01-04-2018





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