रविवार, 29 अप्रैल 2018

मेरी स्क्रीन महक उठती है,



ग़ज़ल

दूर ही दूर से लुभाते हैं.
खूब अच्छा हमें बनाते हैं.

मेरी स्क्रीन महक उठती है,
ओन लाइन वो जब भी आते हैं.

ख़ैर अपनी मनायें नींदों की,
नींद मेरी जो अब चुराते हैं.

जिनको दिल की दवा समझते थे,
दिल वही अब मेरा दुखाते हैं.

और भड़केगी आग अब दिल से,
जितना ख़ामोश रह दबाते हैं.

तू ग़ज़ल बन के आजा होटों पे,
आज चल तुझ को गुनगुनाते हैं.

डॉ. सुभाष भदौरिया गुजरात ता.29-04-2018


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