शुक्रवार, 4 मई 2018

गमों को हम तो खुशियों में ढाल देते हैं.

ग़ज़ल
गमों को हम तो खुशियों में ढाल देते हैं.
सख़्त पत्थर से भी पानी निकाल देते हैं.
जड़ों को काट वतन की बनायें वो बंजर,
उगा दरख़्त हम सहरा का हाल देते हैं.
बने जो काम, वो सारे बिगाड़ कर रख दें,
लगा के हाथ हम अपने संभाल देते हैं.

वो अलग होंगे वचन देके जो मुकरते हैं,
ज़ुबां से कहते हैं हम जो भी पाल देते हैं.

वो अपने सर की मनायें ये ख़ैर कह दो अब
मेरी जो पगड़ी को अक्सर उछाल देते हैं.

रखे हैं मुल्क को गिरवी  वो अब तो किस्तों में
सभी को हम तो वतन का ख़याल देते हैं.


डॉ.सुभाष भदौरिया गुजरात ता.04-05-2018










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