रविवार, 3 अगस्त 2008

कल ही तो मरा है वो कल ही तो जला है वो.

ब्लॉग की दुनियां के ज्ञानी अज्ञानी विदुषी,विदूशक फिर से गुजरातियों को दोषी करार देते हुए रेंक रहे हैं. तो इक तरफ़ हमारे अहमदाबाद के लोग सब ज़ब्त करते हुए अंदर ही अंदर सुलग रहे हैं. ये ग़ज़ल उन्हीं बेज़बानों के नाम है जो इस दुनियां में नहीं हैं.
ग़ज़ल
वो खून की नदियों को सड़कों पे बहाये है.
इल्ज़ाम हमारे ही फिर सर पे लगाये है.

कल ही तो मरा है वो , कल ही तो जला है वो ,
कमजर्फ़ ज़माना ये पल भर में भुलाये है.

विस्फोट कहीं भी हो, ज़ख्मी वो कोई भी हो,
हमको तो लगे भाई-भाई को बुलाये है.

शातिर है, बहुत शातिर, वो खून का प्यासा है,
छिपकर के वो पर्दे में जो तीर चलाये हैं.

जो जान लुटाने की करता था बहुत बातें,
वो दोस्त हमारा क्यों अब नज़रें चुराये है.

तहज़ीब तमद्दुन से वाकिफ़ ही नहीं है जो,
ग़ज़लें ये दिलेनादां तू किसको सुनाये है.

डॉ.सुभाष भदौरिया,.ता.03-08-08 समय-12.59AM

तहज़ीब-सभ्यता. तमद्दुन- मिलजुल कर रहना.















































4 टिप्‍पणियां:

  1. सुभाष जी,आप की गजल दिल को छू गई।बहुत सही कहा।

    जो जान लुटाने की करता था बहुत बातें,
    वो दोस्त हमारा क्यों अब नज़रें चुराये है.

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  2. परमजीतजी एवं संजय बेंगाणीजी जिस सूरत का जिक्र अभी सुर्खियों मे हैं वहां के गुजराती ग़ज़ल के पितामह मरीज़ साहब ने सच ही कहा है-
    बे जणा दिल थी मळे तो एक मज़लिस छे मरीज़
    दिल वगर लाखो मळे एने सभा कहता नथी.
    अर्थात दो लोग अगर दिल से मिलें तो एक मजलिस का का दर्ज़ा प्राप्त करते हैं बिना दिल के मिलने वाली भीड़ं होती है उसे सभी नहीं कहा जा सकता .
    आप दोनो के दिलों तक मेरी ग़ज़ल पहुँची मुझे एक संज़ीदा अंजुमन का अहसास हुआ.
    बाकी तो आजा फंसाजा का खेल करने वाले रंगे सियारों की फितरत मुझसे छिपी नहीं है जो वगर वात के गुजरात के नाम पर हुआं हुआं चिल्लाया करते हैं.कमबख्त सुअर खुद तो आईना देखते नहीं और हमें काना काना चिल्लाते हैं.

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  3. तहज़ीब तमद्दुन से वाकिफ़ ही नहीं है जो,
    ग़ज़लें ये दिलेनादां तू किसको सुनाये है.

    सुभाष जी , आप के इस शेर में बहोत गहरा तंज़ है. और उर्दू जुबां पर आप की गिरफ्त ने बहुत मुतास्सिर किया. इतनी अच्छी ग़ज़ल के लिए बहुत शुक्रिया, नवाजिश, कर्म.

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