बुधवार, 25 सितंबर 2024

दूर ले जाये हमको बहा के कहीं

 

ग़ज़ल

हमने चाहा जिसे वो खुशी ना मिली.

दुश्मनी तो मिली दोस्ती ना मिली..

 

यूँ अँधरे मिला बेतहाशा हमें.

पर लिपट कर कभी रोशनी ना मिली..

 

कोई आँसू बहाये हमारे लिए.

आँख  में वो किसी के नमी ना मिली.

 

बे वजह यूँ ही उड़ते रहे उम्र भर.

आसमां तो मिला पर जमीं ना मिली.

 

दूर ले जाये हमको बहा के कहीं,

तेज रफ़्तार की वो नदी ना मिली..

 

डॉ.सुभाष भदौरिया अहमदाबाद गुजरात. ता.25/09/2024

 

 

शुक्रवार, 13 सितंबर 2024

तेरा भी हाथ है शामिल मेरी तबाही में।


ग़ज़ल

पुराने ज़ख़्मों को मेरे झिंझोड़ता क्यों है।
तू अपने आपको औरों से जोड़ता क्यों है।।

हलाल कर मुझे अपने हसीन हाथों से।
मैं ज़िन्दा हूं तू मुझे ज़िन्दा छोड़ता क्यों है।।

दिखा के पीठ यूं मैदां से हो रहा रख़सत।
उसूल जंग के इस तरह तोड़ता क्यों है।।

तेरा भी हाथ है शामिल मेरी तबाही में।
मेरा ही हाथ तू हरदम मरोड़ता क्यों है।।

तुझे है वास्ता मेरे न मरने जीने से ।
मुझे तू नीबू सा हरदम निचोड़ता क्यों है।।

शरीफ बन के वो लूटे है सीधे सादों को।
वो अपना ठीकरा सर मेरे फोड़ता क्यों है।।

डॉ.सुभाष भदोरिया अहमदाबाद गुजरात।

रविवार, 12 फ़रवरी 2023

नींद आँखों से अपनी गायब है, बेंच वो मुल्क मुस्कराता है.

 


ग़ज़ल

वक्त के साथ बदल जाता है.

ताज़ जाता है ताज़ आता है.

 

अपने चहरे पे मुर्दगी छायी,

चहरा उसका तो जगमगाता है.

 

नींद आँखों से अपनी गायब है,

बेंच वो मुल्क मुस्कराता है.

 

देश भेड़ों में हो गया तब्दील,

रात दिन सब को वो चराता है.

 

उसकी छत से टपक रहा अमृत,

चाट कर सबको वो बताता है.

 

उसकी जादूगरी के क्या कहने,

आग पानी में वो लगाता है.

 

दाग़ पर दाग़ लग रहे फिर भी,

और दाग़ों को वो छुपाता है.

 

मौत से हमको मत डराना तुम,

मौत से खानदानी नाता है.


उपरोकत तस्वीर से ये ग़ज़ल वाबिस्ता है.

 

 

 

 

 

 

 

 

गुरुवार, 10 नवंबर 2022

 

ग़ज़ल

पुल पे जाने से अब लोग डरने लगे.

मोरबी की व्यथा याद करने लगे.


ट्रेन भैसों से ज़ख्मी हुईं आजकल,

रंग वफ़ा के यहां भी उतरने लगे.


उनकी सौगात की आँधियां यूं चली,

सूखे पत्तों से हम तो बिखरने लगे.


जिनकी परवाज़ थी आसमानों तलक,

बैठ कर पर वे उनके कतरने लगे.


 इतना मत प्यार कर हम को ओ बेवफ़ा,

हम मुहब्बत में अब तेरी मरने लगे.

 

डॉ. सुभाष भदौरिया गुजरात. ता. 10/11/20222

 

 

शनिवार, 5 नवंबर 2022

टूटते, चीखते मोरबी हो गये.

 

ग़ज़ल

सबने सोचा था क्या, क्या सभी हो गये.

मौत की, एक गहरी नदी हो गये.

 

हमको झूले, झुलाये गये इस तरह,

टूटते, चीखते मोरबी हो गये.

 

घर को घर वाले ही नोंच खाते रहे,

मुफ़्त बदनाम तो बाहरी हो गये.

 

हम पे थोपे गये कैसे कैसे यहां,

सहते सहते जिन्हें हम सदी हो गये.

 

 

 

आँख में जो कभी अपनी बसते थे वे,

आँख की वे ही, अब किरकिरी हो गये.

 

 

गूंगे, बहरों की बस्ती में देखो जरा,

हम तो आवाज़ अब आखिरी हो गये.

 

डॉ. सुभाष भदौरिया गुजरात ता. 11/05/2022

 

 

शनिवार, 22 जनवरी 2022

गर्दन पे अपने चाहे जितनी आरियां रहीं.

 

ग़ज़ल

गर्दन पे अपने चाहे जितनी आरियां रहीं.

अपने मिज़ाज में मगर ख़ुद्दारियां रहीं.


औरों से नाता जोड़ने में दिक्कतें बहुत,

अपनों से भी निभाने में लाचारियां रहीं.


मुहताज ना किसी के हुए ख़ैर मानिये,

यूं जिंदगी में बहुत सी बीमारियां रहीं.


कांटो के बीच हमने गुज़ारी तमाम उम्र,

ख़्वाबों में ख़ुश्बुओं की मगर क्यारियां रही.


बच्चे बढ़े हुए तो परिन्दों से उड़ गये,

मां बाप के नसीब में किलकारियां रहीं.


आँसू को अपने पोंछ लो क्यों रो रहे हो आप,

जीवन में यूं तो सबके ही दुश्वारियां रहीं.


डॉ. सुभाष भदौरिया गुजरात ता.22-01-2022

 

गुरुवार, 20 जनवरी 2022

सूखी नदी में नाव चलाकर के क्या करें.

 

ग़ज़ल

सूखी नदी में नाव चलाकर के क्या करें.

उस बेवफ़ा से दिल को लगाकर के क्या करें.


तालाब ये अश्कों के भी अब सूखने लगे,

हम रोज़ रोज़ अश्क बहाकर के क्या करें.


इल्ज़ाम सारे हमने तो तस्लीम कर लिये,

हम ख़ुद को पाक़ साफ़ बताकर के क्या करें.


आदत सी पड़ गयी है अँधेरों की जब हमें,

फिर दूसरी शम्अ जलाकर के क्या करें.


खाये हो गहरी चोट कहां पूछते हैं सब,

हम नाम अब सभी का गिनाकर के क्या करें.


डॉ. सुभाष भदौरिया गुजरात. ता.20-01-2022