ग़ज़ल
इक उम्र हुई हमको घर अपना बनाने में.
कुछ देर तो होगी ही दुश्मन को गिराने में.
कश्मीर की वादी में मारे हैे निहत्थों को ,
है हाथ तुम्हारा भी ये आग लगाने में.
भागोगे कहाँ बोलो जब लेंगे निशाने में.
चूहों को चढी मस्ती, उछले
हैं बहुत सर पे,
ख़तरे हैं बहुत ख़तरे शेरों को जगाने में.
कट जाये अगर सर तो धड़ लड़ता है मैदा में,
पुरखों का लहू अब भी बाकी है ख़ज़ाने में.
साहिल पे खड़े रह कर देखे हो तमाशा तुम,
देरी नहीं लगती है तूफ़ान के आने में
डॉ.सुभाष भदौरिया ता.24/04/2025
डॉ. सुभाष भदौरिया.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें