सोमवार, 14 सितंबर 2009

हम तो रिसर्च कर रहे हैं आटा दाल पे.

ग़ज़ल
वो तो उलझ के रह गये गोरी की चाल पे.
हम तो रिसर्च कर रहे हैं आटा दाल पे.

सूखे पड़े थे कोई उन्हें पूछता न था,
बारिश हुई तो आ गये नाले उछाल पे.

अँधों को रोशनी से कोई वास्ता नहीं,
पाबन्दी वो लगा रहे जलती मशाल पे.

मँहगी हुई है ज़िन्दगी सस्ती है मौत क्यों ?
बगलें वो झांकनें लगे मेरे सवाल पे.

नंगों को क्या हया वो तो नाचे हैं रात दिन,
ताली बजा रहे हैं सब उनके कमाल पे.

दुश्मन से कब करोगे तबाही का फैसला ?
ख़ामोश हो गये हैं वे मेरे ख़याल पे।
उपरोक्त तस्वीर हमारी है सब कहते हैं हमारे अहमदाबाद से दूर ट्रांसफर कर एक गाँव में निष्काषित किये जाने के बाद हमारे चेहरे का नूर चला गया।बाख़ुदा हमारे मिजाज़ की तुर्षियां अभी भी वैसी हैं जैसी पहले थीं।बस कभी बेटी की याद जब आती है तो आँख भर आती है और सब ख़ैरयित है खाना तो फकीरों की तरह कहीं न कहीं मिल ही जाता है पीना एन.सी.सी. के कमान्डरों के साथ ही छुट गया कर्नल बोबो का अपने हाथ से अफ्सर्स की पार्टी में जाम भरना और अभी तक याद है। कर्नल शक्तावत की पीने की ट्रेनिंग देना मेरी फेर विदाइ पार्टी में तो तुम्हें पीने ही होगी यार धीरे धीरे पिया करो। मेरा डरते डरते कहना सर वो घर में घुसने नहीं देगी उनका पूछना .कौन सर मेरी बाइफ। सर पड़ौसी इकट्टे होंगे। उनका कहना केंप में रुक जाओ घर जाओ ही मत। मेरा कहना ठीक है सर।। यहां तो प्रिंसीपली का लेबल सिगरेट भी पियो तो चुपके से । पत्नी से दूर रहने का भी आनंद भी कुछ और है वहां तो पानी भी पूछ कर पीना पड़ता है दुश्मनों ने भी क्या इनायतें की हैं आगे भी ज़ारी रहें इसी उम्मीद के साथ
डॉ. सुभाष भदौरिया. ता.14-09-09

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