ग़ज़ल
वो पत्थर दिल पिघलता ही नहीं है.
मेरा कुछ ज़ोर चलता ही नहीं है.
तकूँ मैं राह सुब्हो-शाम उसकी,
वो इस रस्ते निकलता ही नहीं है.
झरे हैं अश्रु बारहमास अपने,
यहां मौसम बदलता ही नहीं है.
मैं दिल को यूँ तो बहलाये बहुत हूँ,
ये उसके बिन बहलता ही नहीं है.
अँधेरे पी गये सब रोशनी को,
दिया इस घर में जलता ही नहीं है.
ये बच्चा अब सयाना होगया है,
खिलौने को मचलता ही नहीं है.
डॉ.सुभाष भदौरिया ता.03-09-2011
गज़ब की भावाव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति| धन्यवाद|
जवाब देंहटाएं1-वंदनाजी शुक्रिया.देर लगी आने में तुमको शुक्र फिर भी आये तो.
जवाब देंहटाएं2-Patali The villege आपके ब्लाग की प्रतीकात्मक कहानियां देखी पसन्द आयीं आपका हमारे ब्लाग पर स्वागत है श्रीमान.
बहुत ही कोमल भावनाओं में रची-बसी खूबसूरत ग़ज़ल.......
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