जाने क्या ऐसी कशिश है तुझ गुलफ़ाम के साथ.
लोग लेते हैं मेरा नाम तेरे नाम के साथ .
तुम कहीं और चले जाओ, अब दुनियां से मेरी,
ज़हर भी भेजना था, अपने इस पैग़ाम के
साथ.
मुझको मरने का नहीं ग़म, ये ख़्वाहिश है
मेरी,
क़त्ल हो जाऊँ तेरे हाथ से आराम के साथ .
मुझसे तन्हाइयों का नर्क कहां कटता है,
रोज़ आता हूँ नज़र एक नये ज़ाम के साथ.
ग़म जो दो चार गर, होते तो सुनाते तुमको,
सैकड़ों ग़म है सीने में ,इस बदनाम के साथ.
डॉ. सुभाष भदौरिया गुजरात ता.17-03-2017
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें