ग़ज़ल
मामला इस तरह ना सुलझेगा.
मुझको उलझाके वो भी उलझेगा.
नाज़ हमने उठाये हैं तेरे,
हम न होंगे तो कौन पूछेगा.
मेरे ऐबों को देखने वाला,
आइना वो कभी न देखेगा.
शीश-ए- दिल की अब तो ख़ैर नहीं,
उसके हाथों से गिर के टूटेगा.
आदमी मैं कोई बुरा तो नहीं,
वो अकेले में ये भी सोचेगा.
अब मुसाफ़िर पे कुछ बचा ही नहीं,
राहबर और कितना लूटेगा.
दो दो नावों पे पाँव रखता है,
देखना एक दिन वो डूबेगा.
डॉ. सुभाष भदौरिया गुजरात ता.15-03-2018
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें