ग़ज़ल
मर रहे, पिट रहे, रो रहे हैं.
रोज़ विस्फ़ोट अब हो रहे हैं.
मर्द की अब हुकूमत कहाँ है,
हम तो हिजड़ों को ही ढो रहे हैं.
टांग में टांग देखो फ़साये,
चूतिये चैन से सो रहे हैं.
मुंबई बाप की है हमारी,
बीज नफ़रत के वो बो रहे है.
पहले मसले कहाँ कोई कम थे,
रोज़ मसले खड़े हो रहे हैं.
शेर ने मुस्करा के कहा ये,
अब तो बच्चे बड़े हो रहे हैं.
बन के बारूद अब फट ना जाये,
लोग धीरज सभी खो रहे हैं।
ता.30-10-08 समय10-10PM
मर रहे, पिट रहे, रो रहे हैं.
रोज़ विस्फ़ोट अब हो रहे हैं.
मर्द की अब हुकूमत कहाँ है,
हम तो हिजड़ों को ही ढो रहे हैं.
टांग में टांग देखो फ़साये,
चूतिये चैन से सो रहे हैं.
मुंबई बाप की है हमारी,
बीज नफ़रत के वो बो रहे है.
पहले मसले कहाँ कोई कम थे,
रोज़ मसले खड़े हो रहे हैं.
शेर ने मुस्करा के कहा ये,
अब तो बच्चे बड़े हो रहे हैं.
बन के बारूद अब फट ना जाये,
लोग धीरज सभी खो रहे हैं।
ता.30-10-08 समय10-10PM
sach mein ab to dheeraj khone ka sa time aa gaya lagta hai!
जवाब देंहटाएं